मोज़ों पर मसह | Mozon Par Masah - Muttaqi
तहारत

मोज़ों पर मसह | Mozon Par Masah

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अल्लाह ने दीन में बड़ी आसानी रखी है. वुज़ू के वक़्त अगर मोज़े या जुराबें पहनी हों तो उसको उतारे बिना उस पर मसह (Mozon Par Masah) किया जा सकता है, पैर धोने की ज़रूरत नहीं है. बशर्ते उसको वुज़ू की हालत में ही पहना हो. इससे जाड़े के मौसम या सफ़र में काफ़ी आसानी रहती हैं.

इस पोस्ट में हम अहले सुन्नत वल जमाअ़त की तालीमात के मुताबिक़ मोज़ों पर मसह का तरीक़ा (Mozon Par Masah Ka Tariqa), यह मसह कब तक बाक़ी रहता है, क्या मौजूदा दौर में इस्तेमाल होने वाले सूती, ऊनी वग़ैरह के मोज़ों पर मसह किया जा सकता है वग़ैरह- वग़ैरह मज़मून पढेंगे.

मोज़ों पर मसह का बयान | Mozon Par Masah Ka Bayan

हज़रत मुग़ीरा रज़ि० कहते हैं: “एक सफ़र में मैं नबी ﷺ के साथ था. मैंने वुज़ू के वक़्त चाहा कि आपके दोनों मोज़े उतार दूं. आप ﷺ ने फ़रमाया: “इन्हें रहने दो. मैंने इन्हें पाकी की हालत में पहना था. फिर आप ﷺ ने उन पर मसह किया.” (बुख़ारी ह० 206)

हज़रत मुग़ीरा रज़ि० बयान करते हैं कि “रसूलुल्लाह ﷺ ने वुज़ू किया और अपने सर के अगले हिस्से, पगड़ी और मोज़ों पर मसह किया. (मुस्लिम ह० 633, 634, 635)

नोट: कुछ हज़रात मसह वाले मोज़ों पर यह शर्त लगते हैं कि वह ऐसा हो जिससे पानी पास न हो सके या 3 मील पैदल चलने पर वह फटे नहीं वग़ैरह- वग़ैरह. ध्यान रहे कि ऐसी कोई भी शर्त किताबो-सुन्नत या सहाबा रज़ि० से साबित नहीं है. इसलिए ऐसी सारी शर्तें बातिल हैं.

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मसह कब तक बाक़ी रहता है? | Masah Kab Tak Baqi Rahta Hai?

शुरैह बिन हानी फ़रमाते हैं: “मैंने हज़रत अली रज़ि० से मौज़ों पर मसह करने की मुद्दत के बारे में पूछा तो हज़रत अली रज़ि० ने फ़रमाया: “रसूलुल्लाह ﷺ ने मुसाफ़िर के लिए (मसह की मुद्दत) तीन दिन-रात और मुक़ीम (ग़ैर मुसाफ़िर) के लिए एक दिन-रात मुक़र्रर फ़रमाई.” (मुस्लिम ह० 639)

सफ़वान बिन अस्साल रज़ि० रिवायत करते हैं कि जब हम सफ़र में होते तो रसूलुल्लाह ﷺ हमें हुक्म देते कि हम अपने मोज़े तीन दिन और तीन रातों तक पाख़ाना, पेशाब या सोने की वजह से न उतारें (बल्कि उन पर मसह करें). हां जनाबत की सूरत में (मोज़े उतारने का हुक्म देते). (तिर्मिज़ी ह० 96)

इस हदीस से मालूम हुआ कि जब ग़ुस्ल फ़र्ज़ हो जाए तो मसह की मुद्दत ख़त्म हो जाती है. अलबत्ता पेशाब-पाख़ाना और नींद के बाद मोज़े नहीं उतारने चाहिए बल्कि ऊपर बयान की गयी मुद्दत तक उन पर मसह कर सकते हैं.

नोट: यह मुद्दत वुज़ू टूटने के बाद मुक़ीम के लिए पहले मसह से शुरू हो कर 24 घंटे बाद ख़त्म हो जाएगी और मुसाफ़िर के लिए पहले मसह से शुरू हो कर 72 घंटों बाद ख़त्म होगी.

चुनांचे हम फ़र्ज़ करें कि एक शख़्स ने मंगल के रोज़ अस्र की नमाज़ के लिए वुज़ू किया और उसने इस रोज़ बाक़ी नमाज़ें इसी वुज़ू के साथ अदा कीं और इशा के बाद सो गया. फिर बुध वाले दिन फ़ज्र के लिए उठा और पाँच बजे मसह किया तो उसके मसह की मुद्दत की शुरुआत बुध के रोज़ सुबह पाँच बजे शुमार होगी, जो जुमेरात की सुबह पाँच बजे तक रहेगी.

और अगर फ़र्ज़ करें उसने जुमेरात के दिन सुबह पाँच बजने से पहले मसह किया तो वह इस मसह के साथ जुमेरात की नमाज़ फ़ज्र अदा कर सकता है, और जब तक यह वुज़ू बाक़ी है जितनी चाहे नमाज़ अदा कर सकता है. क्योंकि अह्ले इल्म के सहीह और राजेह क़ौल के मुताबिक़ मसह की मुद्दत पूरी होने से वुज़ू नहीं टूटता. हाँ जब मुद्दत ख़त्म हो जाये तो मसह नहीं हो सकता. अब जब भी वुज़ू करेगा तो पाँव धोना ही होगा.

मसह का तरीक़ा क्या है? | Masah Ka Tariqa Kya Hai?

मसह का तरीक़ा बहुत आसान है. पहले दोनों हाथों की उँगलियाँ गीली करें. फिर गीली उंगलियों को पांव की उंगलियों पर रखकर ऊपर पिंडली की तरफ़ फेरा जाये, दाएं हाथ से दाएं पांव और बाएं हाथ से बाएं पांव का मसह किया जाएगा. मसह पाँव के सिर्फ़ ऊपरी हिस्से का होगा न कि तलवा यानी नीचे वाले हिस्से का.

मसह दोनों हाथों से दोनों पांव पर एक साथ किया जाएगा. यानी जिस तरह कानों का मसह किया जाता है उसी तरह दाएं हाथ से दाएं पांव और उसी वक़्त बाएं हाथ से बाएं पांव का मसह करे, क्योंकि सुन्नत से यही ज़ाहिर होता है जैसा कि मुग़ीरह बिन शोबा रज़ि० की रिवायत से पता चलता है, “चुनांचे नबी करीम ﷺ ने इन दोनों पर मसह किया.” (मुस्लिम ह० 633)

उन्होंने यह नहीं कहा कि पहले दाएं से शुरू किया, बल्कि यह कहा कि दोनों पर मसह किया, इसलिए सुन्नत का ज़ाहिर यही है. हाँ अगर कोई मजबूरी हो तो फिर वो बाएं पांव से पहले दाएं पांव का मसह किया जा सकता है.

ध्यान रहे कि मसह करते वक़्त उंगलियां खुली हों और मसह सिर्फ एक बार ही किया जायेगा.

मोज़ों पर मसह की शर्तें | Mozon Par Masah Ki Sharten

मोज़ों पर मसह करने की चार शर्तें हैं;

❶ मोज़े या जुराबें बा-वुज़ू पहने गए हों न कि वुज़ू टूटने के बाद. इसकी दलील नबी करीम का मुग़ीरह बिन शोबा को यह फ़रमाना है कि रहने दो मैंने उन्हें वुज़ू करके पहना था. (मुस्लिम ह० 633)

❷ मोज़े या जुराबें पाक हों. अगर वो नापाक हैं तो उन पर मसह करना जायज़ नहीं क्योंकि नापाक लिबास में नमाज़ नहीं होती है.

❸ इन पर मसह छोटी नापाकी यानी वुज़ू टूटने में होता है, न कि बड़ी नापाकी या जनाबत  में, जिनमें ग़ुस्ल वाजिब होता है.

❹ मसह शरई तौर पर महदूद वक़्त में किया जाये, जो कि मुक़ीम (ग़ैर मुसाफ़िर) के लिए एक रात और दिन, और मुसाफ़िर के लिए तीन रातें और तीन दिन हैं जैसा कि अली बिन अबी तालिब से मर्वी मुस्लिम ह० 639 में है. जो पहले गुज़र चुकी है.

क्या सूती और ऊनी मोज़ों पर मसह करना दुरुस्त है?

ख़ुफ़्फ़ैन (यानी चमड़े के मोज़ों) पर मसह जायज़ होने पर सब मुत्तफ़िक़ है. लेकिन जुराबों (यानी सूती, ऊनी वग़ैरह मोज़ों) पर मसह के मामले में कुछ लोगों ने सहीह अहादीस, इज्मा, सहाबा रज़ि० और इमाम अबू हनीफा रह० के क़ौल की मुख़ालिफ़त करते हुए इसको ना जायज़ क़रार दिया है. आइये देखते हैं कि सहाबा, ताबिईन और अइम्मा-ए- दीन से क्या साबित है.

लेकिन इससे पहले देखते हैं कि जुराब किसको कहा जाता है ताकि बात अच्छी तरह से समझ में आ जाये.

जुराब का माना क्या है? Jurab Ka Mana Kya Hai?

अरबी लुग़त (dictionary) की मशहूर किताब “अल क़ामूस” में लिखा है कि हर वह चीज़ जो पाँव में पहनी जाए, जोरब है (अल क़ामूस 1/46). एक और लुग़त “ताजुल उरूस” में है कि जो चीज़ लिफ़ाफ़े की तरह पांव पर पहनी जाए वह जोरब है.

आरिज़ा अलहीज़ी में हदीस के शारेह (व्याख्याकार) इमाम अबू बक्र इब्ने अरबी रह० लिखते है. जोरब वह चीज़ है जो पांव को ढांपने के लिए ऊन की बनाई जाती है. “उम्दतुर रिआया” में है कि जुराबें रूई यानी सूत की होती हैं और बालों की भी बनती हैं. “ग़ायतुल मक़्सूद” में है कि जुराबें चमड़े की, सूफ़ की और सूत की भी होती हैं.

इस तरह पता चला कि जोरब,  पाँव में पहने जाने वाले लिफ़ाफ़े या लिबास को कहते हैं. वह लिबास चाहे चमड़े का हो, सूती, ऊनी या और किसी चीज़ का, हम उस पर मसह कर सकते हैं.

इसके अलावा नबी ﷺ, सहाबा, ताबिईन और अइम्मा-ए- दीन से सराहत से (यानी clear cut अंदाज़ में) जुराबों पर मसह करना साबित है, जिसके दलाएल इस तरह हैं:

नबी ﷺ  से सुबूत | Nabi ﷺ  Se Suboot

सौबान रज़ि० कहते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ ने एक छोटा लश्कर भेजा तो उसे ठंड लग गई, जब वो लोग रसूलुल्लाह ﷺ के पास आए तो रसूलुल्लाह ﷺ ने उन्हें (वुज़ू करते वक़्त) अमामों (पगड़ियों) और पैर को गर्म करने वाली चीज़ों (यानी मोज़ों और जुराबों) पर मसह करने का हुक्म दिया. (अबू दावूद  ह० 146)

इस रिवायत की सनद सहीह है, इसे इमाम हाकिम रह० और हाफ़िज़ ज़हबी रह० दोनों ने सहीह कहा है. (अल मुस्तदरक 1/169 ह० 602). शैख़ अल्बानी रह० ने भी इसको सहीह कहा है.

सहाबा रज़ि० से सुबूत | Sahaba Se Suboot

इमाम अबू दावूद रह० फ़रमाते हैं:
“और अली बिन अबी तालिब रज़ि०, इब्ने मसऊद रज़ि०, बरा बिन आज़िब रज़ि०, अनस बिन मालिक रज़ि०, अबू उमामा रज़ि०, सहल बिन साद रज़ि०, और अम्र बिन हरीस रज़ि० ने जुराबों पर मसह किया और उमर बिन ख़त्ताब रज़ि० और इब्ने अब्बास रज़ि० से भी जुराबों पर मसह मर्वी है. (अबू दावूद ह० 159 के तहत)
⬤ अम्र बिन हरीस रज़ि० ने कहा: सय्यदना अली रज़ि० ने पेशाब किया, फिर वुज़ू किया और जुराबों पर मसह किया. (इब्ने मुन्ज़िर की अल औसत 1/462)
इस रिवायत की सनद में न तो सुफ़यान सौरी रह० हैं और न कोई दूसरा मुदल्लिस रावी. बल्कि यह सनद बिलकुल सहीह है.
⬤ अनस बिन मालिक रज़ि० ने जुराबों पर मसह किया. (सुनन कुबरा बैहक़ी ह० 1357 – सनद सहीह)

⬤ सय्यदना अबू उमामा रज़ि० ने जुराबों पर मसह किया. (मुसन्नफ़ इब्ने अबी शैबा 1/188 ह० 1979 – सनद हसन)
⬤ सय्यदना बरा बिन आज़िब रज़ि० ने जुराबों पर मसह किया. (मुसन्नफ़ इब्ने अबी शैबा 1/189 ह० 1984 – सनद सहीह)
⬤ सय्यदना उक़बा बिन अम्र रज़ि० ने जुराबों पर मसह किया. (मुसन्नफ़ इब्ने अबी शैबा 1/189 ह० 1987 – सनद सहीह)
⬤ सय्यदना सहल बिन साद रज़ि० ने जुराबों पर मसह किया. (मुसन्नफ़ इब्ने अबी शैबा 1/189 ह० 1990 – सनद हसन)
⬤ इब्ने मुन्ज़िर रह० कहते हैं:
(इमाम) इस्हाक़ बिन राहवैय रह० ने फ़रमाया: “सहाबा रज़ि० का इस मस्अले पर कोई इख़्तिलाफ़ नहीं है .” (अल औसत 1/464- 465)
तक़रीबन यही बात इब्ने हज़म रह० ने कही है. (अल मुहल्ला 2/86 मस्अला नं० 212)
⬤ अल्लामा इब्ने क़ुदामा रह० फ़रमाते हैं:
“और चूंकि सहाबा रज़ि० ने जुराबों पर मसह किया है और उनके ज़माने में उनका कोई मुख़ालिफ़ ज़ाहिर नहीं हुआ, लिहाज़ा इस पर इज्मा है कि जुराबों पर मसह करना सही है. (अल-मुग़नी 1/181 मस्अला नं० 426)

मालूम हुआ कि जुराबों पर मसह के जायज़ होने के बारे में सहाबा का इज्मा है और इज्मा (बज़ात-ए-ख़ुद मुस्तक़िल) शरई हुज्जत है.

रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया: “अल्लाह मेरी उम्मत को गुमराही पर कभी जमा नहीं करेगा.” (अल मुस्तदरक 1/116 ह० 397, 398)

ताबिईन और तबा-ताबिईन से सुबूत | Tabiyeen Aur Taba-Tabiyeen Se Suboot

⦿ इब्राहीम नख़ई रह० जुराबों पर मसह करते थे. (मुसन्नफ़ इब्ने अबी शैबा 1/188 ह० 1977 – सनद सहीह)
⦿ सईद बिन जुबैर रह० ने जुराबों पर मसह किया. (मुसन्नफ़ इब्ने अबी शैबा 1/189 ह० 1989 – सनद सहीह)
⦿ अता बिन अबी रबाह रह० (इमाम अबू हनीफ़ा रह० के उस्ताद) जुराबों पर मसह के क़ाइल थे. ((मुसन्नफ़ इब्ने अबी शैबा 1/189 ह० 1989 – सनद सहीह, अल मुहल्ला 2/86)
⦿ साहिबे हिदाया लिखते हैं: “ और इमाम (अबू हनीफा रह०) से मर्वी है कि उन्होंने साहिबैन (यानी इमाम मुहम्मद और इमाम अबू यूसुफ़) के क़ौल पर रुजू कर लिया था और इसी पर फ़तवा है. (अल हिदाया 1/61)

⦿ क़ाज़ी अबू यूसुफ़ रह०जुराबों पर मसह के क़ाइल थे. (अल हिदाया 1/61)
⦿  इमाम मुहम्मद रह०भी जुराबों पर मसह के क़ाइल थे. (अल हिदाया 1/61)

➤ मालूम हुआ कि ताबिईन रह० भी जुराबों पर मसह के क़ाइल थे.
इमाम तिर्मिज़ी रह० फ़रमाते हैं: सुफ़यान सौरी, अब्दुल्लाह इब्ने मुबारक, शाफ़ई, अहमद और इस्हाक़ (बिन राहवैय) जुराबों पर मसह के क़ाइल थे, बशर्त वो मोटी हों. (सुनन तिर्मिज़ी ह० 99)

जुराबें भी ख़ुफ़्फ़ैन के हुक्म में शामिल हैं | Juraben Bhi Khuffain Ke Hukm Me Shamil Hain

ख़ुफ़्फ़ैन पर मसह मुतवातिर हदीसों से साबित है. जुराबें भी ख़ुफ़्फ़ैन की एक किस्म हैं. बुज़ुर्गाने दीन से यही साबित है.

  • इमाम अता बिन अभी रबाह रह० फ़रमाते हैं: जुराबों और ख़ुफ़्फ़ैन पर मसह का एक ही हुक्म है (यानी दोनों जायज़ हैं). (मुसन्नफ़ इब्ने अबी शैबा 1/189)
  • इमाम नाफ़े रह० (इब्ने उमर रज़ि० के आज़ाद कर्दा ग़ुलाम) से जुराबों पर मसह के बारे में सवाल किया गया तो जवाब दिया “यह ख़ुफ़्फ़ैन के क़ायम मक़ाम हैं” (यानी दोनों का हुक्म एक ही है) (मुसन्नफ़ इब्ने अबी शैबा 1/189)

सहीह अहादीस, इज्मा सहाबा रज़ि०, क़ौल अबू हनीफा रह० और मुफ़्ता-बिहा क़ौल के मुक़ाबले में कुछ हज़रात का यह दावा है कि जुराबों पर मसह जायज़ नहीं है, बे बुनियाद है. उनके पास क़ुर्आन, हदीस और इज्मा से एक भी सरीह दलील नहीं है.

उम्मीद है कि यह मज़मून आपको पसंद आया होगा. अगर इससे मुताल्लिक़ कोई सवाल हो तो कमेंट बॉक्स में पूछ सकते हैं. इसको शेयर करना न भूलें. जज़ाकल्लाह खै़र.

यह मज़मून मुहद्दिस जुबैर अलीज़ई रहिमहुल्लाह के फ़तावा इल्मिया 1/220-223 और मुहद्दिस ग़ुलाम मुस्तफ़ा ज़हीर हफ़ि० के मज़मून जुराबों पर मसह का इख़्तिसार (concised version, संक्षिप्त रूप) है.

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