नमाज़ की नियत कैसे की जाये? | Namaz ki niyat kaise ki jaye?
بسم الله والحمد لله والصلاة والسلام على رسول الله
Is mazmoon ko Roman Urdu me padhne ke liye yahan click kare.
आमाल का दारो मदार नियत पर है. इसीलिए नमाज़ पढने के लिए भी नियत ज़रूरी है. हममें से अक्सर लोग नमाज़ शुरू करने से पहले ज़बान से नियत के तौर पर कुछ अल्फ़ाज़ निकालते हैं. ये अल्फ़ाज़ कुछ लोग कम और कुछ लोग ज़्यादा निकालते हैं. अब सबसे पहला सवाल ज़हन में यह आता है कि नमाज़ की नियत कैसे की जाये (Namaz ki niyat kaise ki jaye)? आइये देखते हैं कि नमाज़ से पहले नियत के बारे में अहले सुन्नत वल जमाअ़त का नज़रिया क्या है?
नियत करता/करती हूँ मैं 2/3/4 रक्अत नमाज़ फ़र्ज़/सुन्नत/नफ़्ल, वक़्त…… वास्ते अल्लाह तआला के, मुंह मेरा कअबा शरीफ़ की तरफ़, पीछे पेश इमाम के….
यह वह नियत है जो कई मुसलमान नमाज़ शुरू करने से पहले करते हैं. कुछ लोग इसमें थोड़ी कमी या ज़्यादती भी कर देते हैं.
इस तरह ज़बान से नियत करने का कोई सबूत न तो ख़ुद रसूलुल्लाह ﷺ से है और न किसी सहाबी या ताबई से. यह सच है कि अमल की बुनियाद नियत होती है (बुख़ारी ह० 1) लेकिन नियत दिल के इरादे का नाम है, न की ज़बान से दुहराने का.
(नमाज़ का पूरा और आसान तरीक़ा जानने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये.)
❖ इमाम इब्ने तैमिय्यह (र०) ने कहा ‘नियत दिल के इरादे को कहते हैं और इरादे का मक़ाम दिल है, ज़बान नहीं.’ (फ़तावा कुबरा 1 /1)
❖ इब्ने क़य्यिम (र०) ने ज़बान से नियत करने को बिदअत कहा. (ज़ाद उल मआद 1 /201)
❖ इमाम नववी (र०) कहते हैं कि ‘नियत सिर्फ दिल के इरादे को कहते हैं, ज़बान से नियत करना न तो रसूलुल्लाह ﷺ से साबित है, न किसी सहाबी, ताबई या चारों इमामों में किसी से.’ (शरह अल मज़हब 1/ 352 )
❖ मुल्ला अली क़ारी (र०) कहते हैं ‘अल्फ़ाज़ के साथ नियत करना जायज़ नहीं क्योंकि यह बिदअत है.’ (मिरक़ात 1 /41)
❖ इब्ने हमाम (र०) ने कहा रसूलुल्लाह ﷺ और सहाबी में किसी एक से भी ज़बान से नियत करना मनक़ूल नहीं है. (फ़त्हुल क़दीर 1 /232)
❖ इब्ने अबीदीन शामी (र०) कहते हैं कि ज़बान से नियत करना बिदअत है. (फ़तावा शामी 1 /279)
इन सब बातों का ख़ुलासा यह है कि नमाज़ के लिए ज़बान से नियत ना की जाये. हम भी जानते हैं कि हम कौन सी नमाज़ पढ़ने जा रहे हैं और वो कितनी रक्अत है, किस जगह, किस मस्जिद वग़ैरह. बल्कि जब हम वुज़ू की तैयारी करते हैं तभी हमारी नियत होती है कि यह वुज़ू फुलां नमाज़ के लिए है और अल्लाह को तो हमसे ज़्यादा इल्म है. इसलिए ज़बान से कुछ ख़ास अल्फ़ाज़ अदा करना दुरुस्त नहीं है और कॉमन सेंस से भी बाहर है.
जज़ाकल्लाह ख़ैर.