क़ुर्बानी के अहम मसाइल | Qurbani Ke Aham Masaail

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ज़ुल हिज्जा का महीना बहुत बरकतों और फज़ीलतों वाला महीना है. जिन लोगों को अल्लाह ने हज की तौफ़ीक़ दी है, वो हज का फ़रीज़ा पूरा करते हैं. और जिनको क़ुर्बानी की तौफ़ीक़ दी है, वो क़ुर्बानी करते हैं. इस मौक़े पर किताबो-सुन्नत की रौशनी में क़ुर्बानी के अहम मसाइल आपकी खिदमत में पेश हैं.
➤ क़ुर्बानी सुन्नत है, वाजिब नहीं
❖ अबू सलमा (रज़ि०) से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया, “जब (ज़ुल हिज्जा का) अशरा दाख़िल हो जाए और तुम में से कोई क़ुर्बानी का इरादा करे तो न अपने बाल काटे और न नाखून काटे.” (मुस्लिम ह# 5117)
(इस हदीस के अल्फाज़ से वाज़ेह होता है यहां बात हो रही है इरादा रखने की, न कि फ़र्ज़/वाजिब होने की)
❖ अब्दुल्लाह इब्न उमर (रज़ि०) फ़रमाते हैं “क़ुर्बानी सुन्नत है, ख़ैर का काम है.” (बुख़ारी ह#5545 में ता’लीक़न, तग़लीक़ अत-ता’लीक़ ल इब्न हजर 3/5)
❖ अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ि०) के बारे में है कि जब ईद अल-अज़हा का दिन आता तो आप अपने गुलाम को 2 दिरहम देते और फरमाते कि उनका गोश्त खरीद लाओ और लोगों को बता देना कि ये अब्दुल्लाह बिन अब्बास की क़ुर्बानी है.” (सुनन बैहक़ी: 9/265)
साबित हुआ कि अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ि०) क़ुर्बानी छोड़ भी कर देते थे और उसकी खबर भी देते.
❖ अबू मसऊद अंसारी (रज़ि०) फ़रमाते हैं “मैंने यह इरादा किया कि क़ुर्बानी को छोड़ दूं, इस वजह से कि कोई इसको वाजिब न समझ ले, अगरचे मैं तुम्हारे मुक़ाबले में (माली) आसानी रखता हूं.” (सुनन बैहक़ी 9/265)
❖ अबू सरीहा (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि “बेशक अबू बक्र (रज़ि०) और उमर (रज़ि०) दोनों क़ुर्बानी नहीं करते थे.” (शरह मा’नी उल असार 4/174, मारिफ़तुस सुनन व आसार 5633)
❖ इमाम मालिक (रह०) फ़रमाते हैं “क़ुर्बानी सुन्नत है, वाजिब नहीं, और जो शख्स इसकी इस्तिताअत रखता हो तो मैं पसंद नहीं करता कि वो इसको छोड़ दे.” (मुवत्ता ह# 1073 के तहत)
❖ इमाम शाफ़ई (रह०) फ़रमाते हैं “क़ुर्बानी सुन्नत है और मैं इसे छोड़ना पसंद नहीं करता.” (किताबुल उम्म 1/221)
❖ इमाम बुख़ारी (रह०) ने अपनी किताब सही बुख़ारी में बाब (चैप्टर) का नाम रखा “क़ुर्बानी करना सुन्नत है.” (बुख़ारी ह#5545 से पहले)
❖ अल्लामा इब्न हज़म (रह०, वफ़ात 456 हिजरी) फरमाते हैं: “किसी सहाबी से क़ुर्बानी को वाजिब कहना साबित नहीं.” (अल-मुहल्ला बिल-आसार: 10/6)
नोट: एक रिवायत में है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया ‘जो शख्स क़ुदरत और इस्तिताअत के बावजूद क़ुर्बानी न करे तो वो हमारी ईदगाहों के क़रीब न आए.’ (मुसनद अहमद 2/321, इब्न माजा ह# 3123)
यह रिवायत नबी ﷺ से साबित नहीं है, बल्कि ज़ईफ़ और मुन्कर है. इसके रावी अब्दुल्लाह बिन अय्याश ज़ईफ़ है. इस पर इमाम अबू हातिम अर-राज़ी (रह०), इब्न यूनुस (रह०), इब्न हज़म (रह०) वगैरह ने जर्ह (criticise) की है. खुद इमाम अहमद (रह०) ने इस रिवायत को मुन्कर (ज़ईफ़ की एक क़िस्म) कहा है. (अल फ़ुरुसिय्याह ल इब्न क़य्यिम पेज 200, किताब अल फुरु’ ल इब्न मुफ़लिह 2/309)
➤ क़ुर्बानी का इरादा रखने वाला क्या करे?
जो शख्स क़ुर्बानी का इरादा रखता हो उसे चाहिए कि ज़ुल हिज्जा का चांद दिखते ही अपने नाखून और बाल न काटे. (मुस्लिम ह# 5119)
➤ क़ुर्बानी का जानवर कैसा हो?
क़ुर्बानी के जानवर का ‘मुसिन्ना’ (दोंदा, दो दांत वाला) होना शर्त है. इससे कम उम्र की क़ुर्बानी जायज़ नहीं.
अहल-ए-इल्म के मुताबिक मुसिन्ना, ऊंट (camel), गाय (cow), या बकरी (goat) में दोंदे या उससे बड़े जानवर को कहा जाता है. भेड़ (sheep) के अलावा किसी और जानवर का खीरा (छोटा, कम उम्र) की क़ुर्बानी किसी सूरत में जायज़ नहीं. (शरह मुस्लिम 12/117)
जिन सही हदीसों में भेड़ के ‘जज़अ़’ (1 साल या उससे कम) की क़ुर्बानी का जवांज़ है (मुस्लिम ह# 5082, 5085), वो तंगी पर महमूल हैं। यानी दोंदा जानवर न मिले, या खरीदने की क़ुव्वत से बाहर हो तो एक साल का दुंबा या भेड़ ज़िबाह की जा सकती है.
बाज़ अहले इल्म ने आसानी के लिए उम्र बताई है, जैसे बकरा 1 साल, गाय 2 साल और ऊंट 5 साल. लेकिन असल शर्त दोंदा होना है, उम्र नहीं। यानी 2 दांत वाला होना ज़रूरी है, साल पूरा होना नहीं।
➤ वो नुक़्स (ऐब) जो क़ुर्बानी के जानवर में नहीं होने चाहिए
1- दोनों आंख और कान ठीक हों, (नसाई ह# 4381, तिरमिज़ी ह# 1503)
2- लंगड़ा, बीमार और बहुत कमज़ोर न हो, (अबू दाऊद ह# 2802)
3- सींग टूटी हुई न हो. (नसाई ह# 4382)
❖ इसी रिवायत में मशहूर ताबिई, सईद इब्न मुसय्यिब (रह०) वज़ाहत करते हैं कि जिसका आधा सींग या उससे ज़्यादा टूटा न हो.
➤ अगर जानवर खरीदने के बाद उसमें कोई ऐब पैदा हो जाए तो?
❖ अब्दुल्लाह इब्न ज़ुबैर (रज़ि०) ने क़ुर्बानी के जानवरों में एक कानी ऊंटनी देखी तो फ़रमाया कि अगर यह खरीदने के बाद कानी हुई है तो इसकी क़ुर्बानी कर लो, अगर पहले से ही कानी थी तो दूसरी खरीद लो. (सुनन बैहक़ी 9/289)
❖ शैख़ इब्न उसैमीन (रह०) अहकाम अल-उज़्हिया में लिखते हैं: अगर जानवर में कोई कमी है जो क़ुर्बानी के लिए मुनासिब नहीं है, तो 2 सूरतें हो सकती हैं:
1) अगर ऐसा मालिक की अपनी ग़लती या लापरवाही की वजह से हुआ है, तो उसे दूसरे जानवर से तबदील करना चाहिए जो वैसा ही, या ज़्यादा बेहतर हो, क्योंकि अगर नुक्सान उसने किया है तो उसे क़ुर्बानी के लिए दूसरा जानवर लेना चाहिए. अगर ऐसा जानवर अब भी उसका है तो वो उसका जो चाहे करे, उसे बेचे या कुछ और.
2) अगर ऐसा मालिक की ग़लती या लापरवाही की वजह से नहीं हुआ है तो इस सूरत में उसकी क़ुर्बानी कर दे और यह क़ुर्बानी शुमार होती है. इसकी वजह यह है कि यह उसके पास अमानत है लेकिन यह नुक्स उसकी ग़लती या लापरवाही के बग़ैर हुआ है, इसलिए उस पर कोई गुनाह नहीं.
➤ गूंगे जानवर की क़ुर्बानी
गूंगे जानवर की क़ुर्बानी के जायज़ होने पर इज्मा है. (अल इज्मा ला इब्न मुंज़िर #220)
➤ अगर पेट से मुर्दा बच्चा निकले तो?
अगर पेट से मुर्दा बच्चा निकले तो उसको खाने में कोई हर्ज नहीं है. उसकी मां का ज़िबह करना उसके लिए काफ़ी है. (अबू दावूद ह# 2827)
इस बात पर भी इज्मा है कि ज़बीहा के पेट से अगर बच्चा मुर्दा निकला तो उसकी मां की क़ुर्बानी उसके लिए काफ़ी है. (अल इज्मा ला इब्न मुंज़िर #221)
हां अगर बच्चा ज़िंदा है तो उसको ज़िबह किए बग़ैर खाना दुरुस्त नहीं है क्योंकि वो एक अलग जान है.
➤ क़ुर्बानी के जानवर का चेहरा क़िबला रुख़ रखना चाहिए
इब्न उमर (रज़ि०) उस गोश्त को खाना मकरूह समझते थे जिसे क़िबला रुख़ किए बग़ैर ज़िबह किया गया हो. (मुसन्नफ़ अब्दुर रज़्ज़ाक़ ह# 8585)
➤ सफर में भी क़ुर्बानी की जा सकती है
इब्न अब्बास (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि हम रसूल अल्लाह ﷺ के साथ सफर में थे. जब क़ुर्बानी का दिन आया, तो हमने गाय में 7 हिस्से और ऊंट में 10 हिस्से किए. (तिरमिज़ी ह# 1501)
➤ ईद की नमाज़ से पहले क़ुर्बानी दुरुस्त नहीं
रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया कि “जिसने नमाज़ से पहले क़ुर्बानी कर ली हो वो उसकी जगह दोबारा करे……..” (बुख़ारी ह# 5562, 5563)
➤ मय्यत की तरफ से क़ुर्बानी दुरुस्त नहीं
मय्यत की तरफ से क़ुर्बानी वाली रिवायत 2,3 वजूहात से ज़ईफ़ है. (अबू दाऊद ह# 2790, तिरमिज़ी ह# 1495)
हां, अगर सदके की नियत से करे तो जायज़ है लेकिन ऐसी क़ुर्बानी का सारा गोश्त, खाल आदि ग़रीबों को सदके में देना ज़रूरी है. खुद न खाए.
➤ पूरे घर की तरफ से एक क़ुर्बानी काफ़ी है
❖ अब्दुल्लाह बिन हिशाम (रज़ि०) अपने तमाम घर वालों की तरफ से एक ही बकरी क़ुर्बान किया करते थे. (बुखारी ह# 7210)
❖ अबू सरीहा (रज़ि०) कहते हैं कि सुन्नत का तरीक़ा मालूम हो जाने के बाद भी हमारे घर वालों ने हमें ज़्यादती पर मजबूर किया, (नबी के दौर में) हाल यह था कि एक घर वाले एक या दो बकरियों की क़ुर्बानी करते थे, और अब (अगर हम ऐसा करते हैं) तो हमारे पडोसी हमें कंजूस कहते हैं. (इब्ने माजा ह० 3148)
❖ अबू अय्यूब अंसारी (रज़ि०) फ़रमाते हैं “हम एक बकरी की क़ुर्बानी किया करते थे. आदमी अपनी तरफ से और अपने घर वालों की तरफ से (एक बकरी क़ुर्बान) करता था. फिर बाद में लोगों ने एक दूसरे पर फ़ख़्र करना शुरू कर दिया.” (मुवत्ता ह# 1069, इब्न माजा ह# 3147)
(यहां घर से मतलब वो फैमिली है जिसमें पूरे घर का एक सरबराह (मुखिया) हो)
❖ लेकिन अगर घर के सब लोग अलग-अलग क़ुर्बानी करना चाहें तो कोई हर्ज नहीं है. इसी तरह कोई शख्स अकेले एक से ज़्यादा जानवर क़ुर्बान करना चाहें तो वो भी दुरुस्त है.
➤ ईदगाह में भी क़ुर्बानी करना जायज़ है
अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि रसूल अल्लाह ﷺ (क़ुर्बानी) ज़िबह और नहर ईदगाह में किया करते थे. (बुख़ारी ह# 5551, 5552)
➤ जानवर दूसरे से ज़िबह करवाना जायज़ है
क़ुर्बानी का जानवर खुद ज़िबह करना सुन्नत है और दूसरे से करवाना जायज़ है. (मुवत्ता ह# 145, नसाई ह# 4424)
➤ क़ुर्बानी का गोश्त के 3 बराबर हिस्से करना ज़रूरी नहीं
क़ुर्बानी का गोश्त खुद खाना वाजिब नहीं बल्कि मुस्तहब है, और उसके 3 बराबर हिस्से करना भी ज़रूरी नहीं है. चाहे तो सारा गोश्त ग़रीबों में तक़सीम कर दे.
रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया, “मैंने तुम लोगों को तीन दिन से ज़्यादा क़ुर्बानी का गोश्त रखने से मना किया था ताकि मालदार लोग उन लोगों के लिए कुशादगी कर दें जिन्हें क़ुर्बानी की ताक़त नहीं है, सो अब जितना चाहो खुद खाओ, दूसरों को खिलाओ और (गोश्त) जमा कर के रखो.” (तिर्मिज़ी ह० 1510 )
➤ क़ुर्बानी के जानवर के साथ नरमी का सुलूक
❖ अल्लाह के रसूल ﷺ ने फ़रमाया, “जब तुम ज़िबह करो तो उसमें भी अच्छाई का सुलूक करो, इस तरह कि तुम अपनी छुरी को खूब तेज़ कर लो ताकि अपने ज़बीहा को आराम दो.” (मुस्लिम ह# 5055)
❖ अल्लाह के रसूल ﷺ का गुज़र एक शख्स पर से हुआ जिसने बकरी के बग़ल पर पैर रखा था और छुरी तेज़ कर रहा था और बकरी उसे देख रही थी. आप ﷺ ने फ़रमाया “यह पहले ही क्यों नहीं किया, क्या तुम उसे 2 मौत देना चाहते हो?” (मु’जमुल औसत ह# 3590)
➤ औरत खुद भी ज़िबह कर सकती है
अबू मूसा अशअरी (रज़ि०) अपनी बेटियों को हुक्म देते थे कि वो क़ुर्बानी खुद अपने हाथों से करे. (मुसन्नफ़ अब्दुर रज़्ज़ाक़ ह# 8169)
➤ क़ुर्बानी का गोश्त ग़ैर-मुस्लिमों को देना दुरुस्त है
अल्लाह का फ़रमान है: “अल्लाह तुम्हें उनके साथ अच्छा सुलूक और इंसाफ करने से नहीं रोकता जिन लोगो ने दीन के बारे में तुमसे जंग नहीं की और तुम्हें घरों से नहीं निकाला. बेशक अल्लाह इंसाफ करने वालों को पसंद करता है.” (सूरह अल मुम्तहिना # 8)
ख़ुलासा
आम तौर से जो मसाइल हमारे सामने पेश आते हैं, उनको यहां पेश करने की कोशिश की गई है. अगर कोई और मसअला बयान करना रह गया हो तो कमेंट बॉक्स में पूछ सकते हैं.
जज़ाकल्लाह ख़ैर.